महात्मा गांधी भारत के राष्ट्रपिता हैं। देश को आज़ादी दिलाने में उन्होंने अहम रोल निभाया। मोहनदास करमचंद गांधी बाकी सभी लोगों के लिए महात्मा थे लेकिन अपने बेटे हरिलाल गाँधी के नज़र में महात्मा नही थे। हरिलाल को हमेशा ऐसा लगा कि उनके पिता एक अच्छे पिता नही हैं। गांधी जा का सारा ध्यान लोगों की भलाई और भेदभाव की लड़ाई में रहा। वे दूसरों के लिए जीते थे और सत्य अहिंसा का पालन करते थे।
हरिलाल गाँधी के जीवनी पर आधारित थी फ़िल्म
मशहूर स्टेज प्ले निर्देशक फिरोज़ अब्बास खान कई नाटक लिखते थे कई शहरों में उसका मंचन भी करते थे। उन्होंने महात्मा गाँधी और उनके बेटे के रिश्ते के ऊपर महात्मा वर्सेस गाँधी नाम से एक नाटक लिखी थी। इस नाटक को बहुत तारीफें मिली। इस नाटक में महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल गांधी के रिश्तों पर बारीकी से बात की गई थी।
बाद में फिरोज़ खान ने इस नाटक को फ़िल्म के रूप में बनाने का निर्णय लिया था। एक बायोग्राफी पुस्तक ‘हरिलाल गांधी : अ लाइफ बाय चंदूलाल भागूभाई दलाल’ से प्रेरित होकर और नाटक से अंश लेकर ‘गांधी माय फादर’ फ़िल्म के पटकथा की रचना की गई।
गांधी का नाम सुनकर कॉल नही उठा रहे थे अक्षय खन्ना
अनिल कपूर के प्रोडक्शन हाउस में बनी ‘गाँधी माय फादर’ में हरिलाल गांधी के किरदार के लिए अक्षय खन्ना को पसंद किया जा रहा था। अनिल ने उनसे मिलकर प्री प्रोडक्शन स्टेज में मज़ाक में ही कहा था कि तुम्हे गांधी बनाऊंगा। अक्षय खन्ना और अनिल दोनों ही सुभाष घई की ताल में साथ मे काम कर चुके थे। गाँधी करैक्टर की बात सुनकर अक्षय चौंक गए। वे गांधी की भूमिका नही करना चाहते थे इसी कारण अनिल कपूर का कॉल नही अटेंड कर रहे थे।
बाद में अनिल ने उन्हें मेसेज किया कि वे गाँधी के बेटे के किरदार में अक्षय खन्ना को कास्ट करना चाहते हैं। तब जाकर अक्षय ने फ़िल्म साइन की और बेजोड़ अभिनय किया।
इस फ़िल्म के चलते अनुपम और अनिल के रिश्ते में आई खटास
इस फ़िल्म के लिए गांधी के किरदार में अनिल कपूर अपने परममित्र अनुपम खेर को कास्ट करना चाहते थी। अनिल को पता था कि अनुपम बेहतरीन कलाकार हैं और गाँधी की भूमिका जबरदस्त तरीके से निभा सकते हैं। अनिल ने बात की और अनुपम राज़ी हो गए। कुछ दिनों के बाद अनिल को पता चला कि अनुपम खेर ने एक फ़िल्म ‘मैंने गांधी को नही मारा’ को शुरू किया है, जिसके वे निर्माता हैं। अनिल को लगा कि अनुपम उसमें गांधी की भूमिका निभा रहे हैं। अनिल को लगा कि उनके मित्र उनके साथ धोखा कर रहे हैं। ऐसे में उनके दर्शन जरीवाला को फाइनल किया और अनुपम ने बताया कि वे फ़िल्म में गांधी नही बने हैं। हालांकि बाद में दोनों के रिश्ते सामान्य हो गए। भूमिका चावला की मुख्य हेरोइन यानी फीमेल लीड के रूप में यह आखिरी फ़िल्म मानी जाती है।
पिता और पुत्र के विचारों में मतभेद
2007 में रिलीज हुई इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी। गांधी माई फादर अपने बेटे हरिलाल गांधी के साथ गांधी के जटिल और तनावपूर्ण संबंधों की तस्वीर पेश करती है।
शुरू से ही दोनों ने विपरीत दिशाओं में सपने देखे। हरिलाल की महत्वाकांक्षा विदेश में पढ़ाई करने और अपने पिता की तरह बैरिस्टर बनने की थी, जबकि गांधी को उम्मीद थी कि उनका बेटा साथ होगा और भारत में अपने आदर्शों और स्वतंत्रता के लिए लड़ेगा। जब गांधी हरिलाल को विदेश में पढ़ने का मौका नहीं देते, तो यह हरिलाल के लिए एक झटके जैसा होता है। वह अपने पिता के घर को छोड़ने का फैसला करता है और भारत के लिए दक्षिण अफ्रीका छोड़ देता है जहां वह अपनी पत्नी गुलाब (भूमिका चावला) और बच्चों के साथ जुड़ जाता है।
गांधी के अंतिम संस्कार में अजनबी की तरह हुआ शामिल, गरीबी में हुई मौत
हरिलाल अपनी डिप्लोमा अर्जित करने के लिए शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए वापस चला जाता है लेकिन लगातार विफल रहता है और वित्तीय बर्बादी में समाप्त होता है। परिवार को गरीबी में छोड़कर धन कमाने की विभिन्न योजनाएँ विफल हो जाती हैं। अपनी असफलता से बीमार, गुलाब बच्चों के साथ अपने माता-पिता के घर लौट आती है, जहाँ वह अंततः फ्लू महामारी से मर जाती है। व्याकुल, हरिलाल सांत्वना के लिए शराबी में बदल जाता है और इस्लाम में परिवर्तित हो जाता है, बाद में हिंदू धर्म के एक अलग संप्रदाय में फिर से परिवर्तित हो जाता है। राजनीतिक तनाव बढ़ने के साथ, गांधी और उनके सबसे बड़े बेटे के बीच दरार तब तक बढ़ती है जब तक कि यह मरम्मत से परे नहीं हो जाता। हरिलाल को अपने पिता की विशाल छाया में रहना असहनीय लगता है। दोनों के सुलह होने से पहले ही गांधी की हत्या कर दी जाती है और हरिलाल अपने पिता के अंतिम संस्कार में एक अजनबी के रूप में शामिल होते हैं, जो उनके आसपास के लोगों के लिए लगभग अपरिचित होता है। थोड़ी देर बाद, वह अकेले होकर गरीबी में मर जाता है। हरिलाल अपनी पहचान खोजने में असफल रहा।
सबने अनिल को मना किया था कि गांधी पर फ़िल्म न बनाए
जब अनिल कपूर ने गांधी माय फादर बनाने का निर्णय लिया तब उनके कई दोस्तो ने उन्हें सलाह दी कि इस तरह की फ़िल्म मत बनाइये पैसे डूब जाएंगे।
यहां तक कि उनके भाई बोनी कपूर को अंदाज़ा हो गया था कि इस तरह की फ़िल्म कभी भी कमा नही सकती है। गांधी माय फादर एक तरह की आर्ट फ़िल्म है। फ़िल्म में कला और कलाकारों की कोई कमी नही थी। यह आज भी अक्षय खन्ना की उत्कृष्ट कृतियों में से एक मानी जाती है। वे जिस किसी भी इस प्रोजेक्ट के बारे में बताते, सभी यही सलाह देते कि तुरंत ही बंद कर दें। किसी ने तो यहां तक कहा था कि कथा तो अच्छी है लेकिन इस फ़िल्म से आपको कोई फायदा नही होगा। बाद में रिलीज के दौरान दर्शकों ने इसे सिरे से नकार दिया। समीक्षकों ने तारीफ ज़रूर की। इस फ़िल्म को 3 राष्ट्रीय पुरुस्कार हासिल हुए। स्पेशल ज्यूरी अवार्ड, बेस्ट स्क्रीनप्ले अवार्ड और दर्शन जरीवाला को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड। अनिल कपूर इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं।
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